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साँड़  : पुं० [सं० षंड] १. गौ का वह नर जो संतान उत्पन्न करने के उद्देश्य से बिना बधिया किये पाला गया हो और इसीलिए जिससे कोई काम न लिया जाता हो। २. गौ का उक्त प्रकार का वह नर जो हिंदुओं में, किसी मृतक की स्मृति में दागकर यों ही छोड़ दिया जाता है। वृषोत्सर्गवाला वृष। ३. लाक्षणकि अर्थ में, वह निश्चित व्यक्ति जो हृष्टपुष्ट हो तथा लड़ने-भिड़ने और उत्पात करने में तेज तथा स्वतन्त्र हो। मुहा०—साँड़ की तरह घूमना=बिलकुल निश्चिंत और स्वतन्त्र रहकर इधर-उधर घूमते रहना। साँड़ की तरह डकरना=मदमत्त होकर अभिमानपूर्वक जोर जोर से बातें करना या चिल्लाना। ४. वह घोड़ा जिसे जोता न जाता हो, बल्कि घोड़ियों से संतान उत्पन्न करने के लिए पाला जाता हो। पुं० [?] [स्त्री० साँड़नी] ऊँट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँड़नी  : स्त्री० [हिं० साँड़ ?] सवारी के काम में आनेवाली तथा बहुत तेज दौड़नेवाली ऊँटनी। पद—साँड़नी सवार।
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साँड़सी  : स्त्री०=सँड़सी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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साँड़ा  : पुं० [हिं० साँड़] छिपकली की जाति का पर उससे कुछ बड़ा एक प्रकार का जंगली जानवर जिसकी चरबी दवा के काम में आती है।
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साँड़िया  : पुं० [हिं० साँड़] १. तेज चलनेवाला ऊँठ। २. उक्त प्रकार के ऊँट का सवार। (राज०)
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साँड़ी  : स्त्री०=साढ़ी (मलाई)। उदा०—कुम्हार कै धरि हाँड़ी आछै अहीरा कै सर साँडी।—गोरखनाथ।
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