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संशय  : पुं० [सं० सम्√शी+अच्] १. पड़े रहना। लेटना। २. मन की वह स्थिति जिसमें किसी बात के संबंध में निराकरण या निश्चय नहीं होता, और उस बात का ठीक रूप जानने या समझने के लिए मन में उत्कंठा या जिज्ञासा बनी रहती है। तथ्य या वास्तविकता तक पहुँचने के लिए मन जिज्ञासापूर्ण वृत्ति। शक। (डाउट) विशेष-संशय बहुधा ऐसी बातों के संबंध में होता है जिन पर पहले से लोग कोई निश्चय तो कर चुके हों, फिर भी उस निश्चय से हमारा संतोष या समाधान न होता हो। हमारे मन में यह बात बनी रहती है कि ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। यथा-कछु संशय तो फिरती बारा।—तुलसी। प्रायः शंका और संदेह के स्थान पर भी इसका प्रयोग होता है। दे० ‘शंका’ और ‘संदेह’। इसी आधार पर यह न्यायशास्त्र में १६ पदार्थों में एक माना गया है। ३. खतरे या संकट की आशंका या संभावना। जैसे—प्राणों का संशय होना। ४. साहित्य में, संदेह नामक काव्यालंकार का दूसरा नाम।
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संशयवाद  : पुं० [सं० संशय√वद्+घञ] १. दार्शनिक क्षेत्र में वह सैद्धान्तिक स्थिति जिसमें अंधविश्वास या श्रद्धा और शब्द प्रमाण की उपेक्षा करके यह सोचा जाता है कि अब जो मान्यताएँ चली आ रहीं हैं, वे ठीक भी हैं, तथा नहीं भी और वे ठीक हो भी सकती हैं और नहीं भी हो सकतीं। (स्केप्टिसिज़्म) विशेष—इसमें प्रत्यय, प्रमाण और प्रयोगात्मक अनुभव ही ग्राह्या या मान्य होते हैं। शेष बातों के संबंध में संशय ही बना रहता है।
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संशयवादी  : पुं० [सं० संशय√वद्+णिनि] वह जो संशय वाद का अनुयायी या समर्थक हो।
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संशय-सम  : पुं० [सं०] न्याय दर्शन में २ ४ जातियों अर्थात खंडन की असंगत युक्तियों में से एक। वादी के दृष्टांत में साध्य और असाध्य दोनों प्रकार के धर्मों का आरोप करके उसके साध्य विषय को संदिग्ध सिद्ध करने का प्रयत्न।
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संशयाक्षेप  : पुं० [ष० त०] १. संशय का दूर होना। २. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार।
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संशयात्मक  : वि० [ब० स०] जिसमें संशय के लिए अवकाश हो।
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संशयात्मा  : पुं० [मध्य० स०] वह जिसका मन किसी बात पर विश्वास न करता हो। वह जिसके मन में हर बात के विषय में कुछ न कुछ संशय बना रहता हो।
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संशयालु  : वि० [संशय+आलुच्] बात-बात में संशय या संदेह करनेवाला।
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संशयावह  : वि० [संशय-आ√वह (ढोना)+अच्] १. मन में संशय उत्पन्न करने वाला। २. जो संकट उत्पन्न कर सकता हो। भयावह।
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संशयित  : भू० कृ० [सम्√शी (शयन करना)+क्त] १. (व्यक्ति) जिसके मन में संशय उत्पन्न हुआ हो। २. (बात) जिसके विषय में संशय किया गया हो। संदिग्ध।
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संशयिता  : वि० [सम्√शी (शयन करना)+तृच्] संशय करनेवाला।
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संशयी  : वि० [सं० संशय+इनि] १. जिसके मन में प्रायः संशय होता रहता हो। शक्की स्वभाव वाला। २. जिसके मन में संशय उत्पन्न हुआ हो। ३. जो प्रायः संशय करता रहता हो। जैसे—संशयी बुद्धि या स्वभाव।
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संशयोपमा  : स्त्री० [मध्य० स०] साहित्य में संशय अलंकार का एक भेद जिसमें कई वस्तुओं की समानता का उल्लेख करके संशय का भाव प्रकट किया जाय।
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