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दीपन  : पुं० [सं० दीप् (प्रकाशित करना)+णिच्+ल्युट्—अन] [वि० दीपनीय, दीपित, दीप्त, दीप्य] १. प्रकाश करने के लिए दीपक या और कोई चीज जलाना। २. जठराग्नि तीव्र और प्रज्वलित करना। पाचन-शक्ति बढ़ाना। ३. किसी प्रकार का मनोवेग उत्तेजित और तीव्र करना। उत्तेजन। ४. [√दीप्+णिच्+ल्यु—अन] एक संस्कार जो मंत्र को जाग्रत और सक्रिय करने के लिए किया जाता है। ५. पारा शोधने के समय किया जानेवाला एक संस्कार। ६. तगर की जड़ या लकड़ी। ७. मयूरशिखा नाम की बूटी। ८. केसर। ९. प्याज। १॰. कसौंधा। कासमर्द। वि० १. अग्नि को प्रज्वलित करनेवाला। आग भड़कानेवाला। २. जठराग्नि तीव्र करने पाचन-शक्ति बढ़ानेवाला।
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दीपन-गण  : पुं० [ष० त०] जठराग्नि को तीव्र करनेवाले पदार्थों का एक गण या वर्ग। भूख लगने वाली औषधियों का वर्ग।
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दीपना  : अ० [सं० दीपन] प्रकाशित होना। चमकाना। जगमगाना। स० तीव्र या प्रज्वलित करना।
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दीपनी  : स्त्री० [सं० दीपन+ङीष्] १. मेथी। २. पाठा। ३. अजवायन।
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दीपनीय  : वि० [सं०√दीप् (दीप्ति)+अनीयर्] १. जो दीपन के लिए उपयुक्त हो। जो जलाया या प्रज्वलित किया जा सके। २. जो उत्तेजित, तीव्र या प्रबल किये जाने के योग्य हो।
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दीपनीयक  : वि० [सं०] दीपन।
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दीपनीय-वर्ग  : पुं० [ष० त०] चक्रदत्त के अनुसार एक ओषधि वर्ग जिसके अंतर्गत जठराग्नि तीव्र करनेवाली ये ओषधियाँ हैं—पिप्पली, पिप्पलामूल, चव्य, चीता और नागर।
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