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साकांक्ष  : वि० [सं० त० त०] १. (व्यक्ति) जिसके मन में कोई आकांक्षा हो। आकांक्षा रखनेवाला। २. (काम, चीज या बात) जिसे किसी और की कुछ अपेक्षा हो। सापेक्ष। पुं० भारतीय साहित्य में, एक प्रकार का अर्थदोष जो ऐसे वाक्यों में माना जाता है जिनमें किसी आपेक्षित आशय का स्पशष्ट उल्लेख न हो, और फलतः उस अपेक्षित आशय के सूचक शब्दों की आकांक्षा बनी रहती हो। यथा—‘जननी, रुचि, मुनि पितु वचन क्यों तजि हैं बन राम।—तुलसी। इसमें मुख्य आशय तो यह है कि राम वन जाना क्यों छोड़े। परन्तु ‘क्यों तजिहैं बन राम’ से यह आशय पूरी तरह से प्रकट नहीं होता, इसलिए इसमें साकांक्षा नामक अर्थ दोष है।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
साका  : पुं० [सं० शाका] १. संवत्। शाका। क्रि० प्र०—चलना।—चलाना। २. ख्याति। प्रसिद्धि। ३. कीर्ति। यश। ४. बड़ा काम जिससे कर्ता की बहुत कीर्ति हो। मुहा०—साका करके (कोई काम) करना=सबके सामने, दृढ़ता और वीरतापूर्वक। उदा०—तस फल उन्हहिं देऊँ करि साका।—तुलसी। ५. कोई ऐसा बड़ा काम जो सहसा सब लोग न कर सकते हों और जिसके कारण कर्ता की कीर्ति हो। मुहा०—साका पूजना=किसी का अभीष्ट या उक्त प्रकार का कोई बहुत बड़ा काम सम्पन्न या सम्पादित होना। उदा०—आजु आइ पूजी वह साका।—जायसी। ६. धाक। रोब। मुहा०—साका चलाना या बाँधना= (क) आतंक फैलाना। (ख) रोब जामाना।
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साकार  : वि० [सं० तृ० त०] [भाव० साकारता] १. जिसका कुछ या कोई आकार हो। आकारयुक्त। २. विशेषतः ऐसा अमूर्ति, असांसारिक या पारलौकिक जीव या तत्त्व जो मूर्त रूप धारण करके पृथ्वी पर अवतरित हुआ हो। ३. बात या योजना जिसे उद्दिष्ट, उपयोगी या क्रियात्मक आकार अथवा रूप प्राप्त हुआ हो। जैसे—सपने साकार होना। ४. मोटा। स्थूल। पुं० ईश्वर का वह रूप जो साकार हो। ब्रह्म का मूर्तिमान रूप। जैसे—अवतारों आदि में दिखाई देनेवाला रूप।
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साकारोपासना  : स्त्री० [सं० ष० त०] ईश्वर की वह उपासना जो उसका कोई आकार या मूर्ति बनाकर की जाती है। ईश्वर अथवा उसके किसी अवतार की यों ही अथवा मूर्ति बनाकर की जानेवाली उपासना। निराकार उपासना से भिन्न।
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