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शब्द का अर्थ

सभंग  : वि० [सं०] जिसके खंड या टुकड़े किये गये हों। टूटा या तोड़ा हुआ। भग्न।
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सभंग श्लेष  : पुं० [सं०] साहित्य में श्लेष अलंकार के दो मुख्य भेदों में से जो उस समय माना जाता है जब किसी शब्द या भंग का पद अर्थात खंड या विच्छेद करके कोई दूसरा अर्थ निकाला या लगाया जाता है। यथा-भोगी ह्वै रहत बिलसत अपनी के मध्य कनकन जोरै दान-पाठ परिवार है। सेनापति। इसमें के कनकन का भंग करने पर एक अर्थ होगा। ‘कनक न जोरै का दूसरा अर्थ होगा—कनकन जौरे का। विशेष-सका दूसरा और विपरीत भेद अभग श्लेष कहलाता है।
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सभ  : वि०=सब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सभय  : वि० [सं० अव्य० स०] १. डरा हुआ। भटभीत। २. जिसमें या जिससे भय की आशंका हो। भय-कारक। खतरनाक। क्रि० प्रा० भपूर्वक। डरते। हुए।
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सभर्त्तृका  : वि० स्त्री० [सं० अव्य० स०] (स्त्री०) जिसका पति जीवित हो सधवा।
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सभा  : स्त्री० [सं०] १. किसी एक स्थान पर बैठे हुए बहुत से भले आदमीयों का समूह। परिषद्। समिति। जैसेः राज-सभा। २. सभ्य लोगों की वह मंडला जो किसी कार्य की सिद्धी या किसी विषय पर विचार करने के लिए एकत्र हुई हो। जैसे—इसका निर्णय करने के लिए पंडितों की सभा की जानी चाहिए। ३. वह संस्था जो किसी विशिष्ट उद्देश्य या कार्य की सिद्धि के लिए संगठित हुई हो और नियमित रूप से अपना कार्य करती हों।? जैसे नगरी प्रचारिणी सभा, विद्यार्थी सहायक सभा। ४.वैदिक काल की एक संस्था जिसमें कुछ लोग एकत्र राजनीतिक सामाजिक आदि विषयों पर विचार करते थे। ५. प्रचीन भारत में उक्त प्रकार की संस्था का सदस्य। सभासदष सामाजिक। ६. जुआड़ियों का जमघट या समूह। ६. जुआद्युत] ८. झुंड। समूह। ९. घर-मकान।
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सभाई  : वि० [सं० सभा+हिं० आई (प्रत्य०)] सभा से संबंध रखने वाला। सभा का। जैसे—विधान सभाई दल, हिंदू सभाई प्रतिनिधियों।
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सभाकक्ष  : पुं० सं० ष० त०] दे० ‘प्रकोष्ठ’।
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सभाग  : वि० [सं०] १. जिसका हिस्सा हुआ हो। सामन्य। ३. सार्वजनिक।। वि० [सं० स+भाग्य] [स्त्री० सभागी] १. भाग्यवान्। खुशकिस्मत। वि०=सुभग (सुंदर)।
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सभा-गृह  : पुं० [सं०] २ वह स्थान जहाँ सार्वजनिक सभाएँ या किसी या किसी बड़ी संस्था के अधिवेशन होते हों। (एसेम्बली हाउस)
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सभाग्रणी  : पुं० दे० ‘सदन-नेता’।
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सभा-चतुर  : वि० [सं०] [भाव० सभा—चतुरी] १. वह जो सभा या शिष्ट समाज में बात-चीत करने का अच्छा ढंग जानता हो। विशेषतः जो अपनी चतुराई से लोगों को अपने अनकूल बना, प्रभावित और प्रसन्न कर सकता हो।
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सभा चातुरी  : स्त्री० वि० [सं० सभा० चतुर+हिं० ई (प्रत्य०)] १. सभा-चतुर होने की अवस्था गुण या भाव।
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सभाचार  : पुं० [सं०] १. आचरण और व्यवहार जिनका पालन करना किसी सभा में जाने पर आवश्यक तथा उचित माना जाता हो। २. समाज के रीति रिवाज में। ३. न्यायालयों में काम होने का ढंग या तरीका।
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सभा-त्याग  : पुं० [सं०] किसी सभा के कार्य या व्यवहार से असंतुष्ट होकर उसके अधिवेशन से उठकर चले जाना। सदन-त्याग।
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सभानेता  : पुं० दे० ‘सदननेता’।
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सभापति  : पुं० [सं०] किसी गोष्ठी या सार्वजनिक सभा के कार्यों के संचालन के लिए प्रधान रूप में चुना हुआ व्यक्ति। (प्रसीडेन्य) विशेषः किसी समिति संस्था आदि का स्थाती प्रधान अध्यक्ष कहलाता हैं, जिसका कार्यालय उस संस्था आदि के विधान द्वारा नियत होता है, परंतु सभापति अस्थाई होता है। किसी अधिवेशन के लिए ही चुना जाता है। फिर भी लोक व्यवहार में दोनो शब्द एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त होते हुए देखे जाते हैं।
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सभार्यक  : वि०=सपत्नीक।
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सभावी  : पुं० [सं० सभाविन] सभिक।
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सभासचिव  : पुं०=सदन-सचिव।
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सभासद  : पुं० [सं०] वह जो किसी संस्था समुदाय आदि का सदस्य हो। (मेम्बर)
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सभीत  : क्रि० वि० [सं० स०+भीति] डरते हुए। भयपूर्वक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सभेय  : वि० [सं० सभा+ढक्-एय] जो सभा या शिष्ट समाज के लिए उपयुक्त हो। पुं० विद्वान। २. शिष्ट व्यक्ति। ३. वह जो सभा समाज में बैठकर अच्छी तरह बात-चीत कर सकता हो। सभा-चतुर।
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सभ्य  : वि० [सं० सभा+यत] [भाव० सभ्यता] १. सभा से संबंध रखने वाला। २. सभा, समाज आदि के लिए उपयुक्त। ३. अच्छे विचार रखने और भले आदमियों का सा व्यवहार करने वाला। शिष्ट। ४. (काम या बात) जो भले आदमियों के उपयुक्त और शोभन हो। शिष्ट। (सिविल) जैसे—सभ्य व्यवहार। पुं० १. वह जो किसी सभा संस्था आद् का सदस्य हो। सभासद। २. भला आदमी।
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सभ्यता  : स्त्री० [सभ्य होने की अवस्था, गुण या भाव। २. किसी सभा या समाज की सभ्यता। ३. शीलवान और सज्जन होने की अवस्था और भाव। ४. आज-कल वे सब काम और बातें जो किसी जाति या देश के लोग पृकृति पर विजय पाने और जीवन निर्वाह में सुगमता लाने के लिए फौतिक साधना का पयोग करते हुए आरंभ से अबतक करते आये हैं। किसी जाति या देश की बाह्य तथा भौतिक उन्नतियों का सामूहिक रूप। (सिविलिजेशन) विशेष—सभ्यता और संस्कृति का अंतर जानने के लिए दे० ‘संस्कृति’ का विशेष।
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सभ्येतर  : वि० [सं० पंच० त०] जो सभ्य न होकर उससे भिन्न हो। अर्थात उजड्ड या बेशउर।
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सभासंग  : पुं० [सं० सम-आ√सज्ज (साथ करना)+घञ्] मिलन। मिलाप मेल।
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