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तीव्र  : वि० [सं०√तीव्र (मोटा होना)+रक्] १. बहुत अधिक। अतिशय। अत्यंत। २. बहुत अधिक तीक्ष्ण या तीखा। तेज। ३. बहुत गरम। ४. मान, सीमा आदि में बहुत बढ़ा हुआ। बेहद। ५. कडुआ। कटु। ६. जो सहा न जा सके। असह्र। ७. उग्र, प्रचंड, या विकट। ८. जिसमें यथेष्ट वेग हो। ९. (संगीत में स्वर) जो अपने मानक या साधारण रूप से कुछ ऊँचा या बढ़ा हुआ हो। कोमल का विपर्याय। विशेष–ऋषभ गान्धार, मध्यम, धैवत और निषाद ये पाँचों स्वर दो प्रकार के होते है-कोमल और तीव्र। पुं० १. लोहा। २. नदी का किनारा या तट। ३. महादेव० शिव।
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तीव्र-कंठ  : पुं० [ब० स०] सूरन। जमीकंद। ओल।
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तीव्र-गंधा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] अजवायन। यवानी।
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तीव्रगंधिका  : स्त्री० [सं० तीव्रगन्धा+कन्-टाप्, हृस्व, इत्व] अजवायन।
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तीव्र-गति  : स्त्री० [ब० स०] वायु। हवा।
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तीव्र-ज्वाला  : स्त्री० [सं० तीव्र√ज्वल् (जलना)+णिच्+अच्-टाप्] धव का फूल जिसे छूने से लोगों का विश्वास था कि शरीर में धाव हो जाता है।
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तीव्रता  : स्त्री० [सं० तीव्र+तल्–टाप्] तीव्र होने की अवस्था या भाव। (सभी अर्थों में)।
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तीव्र-सव  : पुं० [कर्म० स०] एक दिन में होनेवाला एक प्रकार का यज्ञ।
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तीव्रा  : स्त्री० [सं० तीव्र+टाप्] १. षडज स्वर की चार श्रुतियों में से पहली श्रुति। २. खुरासानी। अजवायन। ३. राई। ४. गाँडर दूब। गंड-दूर्वा। ५. तुलसी। ६. कुटकी। ७. बड़ी मालकंगनी। ८. तरवी नामक वृक्ष।
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तीव्रानन्द  : पुं० [तीव्र-आनन्द,ब०स०] शिव। महादेव।
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तीव्रानुराग  : पुं० [तीव्र-अनुराग,कर्म०स०] १.किसी वस्तु के प्रति होनेवाला अत्यधिक अनुराग। २. उक्त प्रकार का अनुराग जो जैनों में अतिचार माना जाता है।
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